री रामचरितमानस के पाँचवे काण्ड उत्तर काण्ड मेँ तुलसीदास जी ने कलयुग का वर्णन कुछ इस प्रकार किया है-
कलिमल ग्रसे धर्म सब लुप्त भए सदग्रन्थ।
दंभिन्ह निज मति कल्पि करि प्रगट किए बहु पंथ॥
भए लोग सब मोहबस लोभ ग्रसे सुभ कर्म ।
सुनु हरिजान ग्यान निधि कहउँ कछुक कलिधर्म॥
बरन धरम नहि आश्रम चारी। श्रुति बिरोध रत सब नर नारी॥
द्विज श्रुति बेचक भूप प्रजासन। कोउ नहि मान निगम अनुसासन॥
मारग सोई जा कहुँ जोइ भावा। पंडित सोई जो गाल बजावा॥
मिथ्यारंम्भ दंभ रत जोई। ता कहुँ संत कहई सब कोई॥
सोई सयान जो परधन हारी। जो कर दँभ सो बड आचारी॥
जो कह झूँठ मसखरी जाना। कलजुग सोई गुनवंत बखाना॥
निराचार जो श्रुति पथ त्यागी। कलिजुग सो ग्यानी सो बिरागी॥
जाकेँ नख अरु जटा बिसाला। सोई तापस प्रसिद्ध कलिकाला॥
दो॰ असुभ बेष भूषन धरे भच्छाभच्छ जे खाहिँ।
तेइ जोगी तेइ सिद्ध नर पूज्य ते कलिजुग माहिँ॥
सो॰ जे अपकारी चार तिन्ह कर गौरव मान्य तेइ। मन क्रम बचन लबार तेइ बकता कलिकाल महुँ॥
नारि बिबस नर सकल गोसाईँ। नाचहि नट मर्कट की नाईँ॥
सूद्र द्विजन्ह उपदेसहिँ ग्याना। मेलि जनेऊ लेहिँ कुदाना॥
सब नर काम लोभ रत क्रोधी। देव विप्र श्रुति संत विरोधी॥
गुन मंदिर सुंदर पति त्यागी। भजहिँ नारी पर पुरुष अभागी॥
सौभागिनीँ विभूषन हीना। विधवन्ह के सिँगार नवीना॥
गुर सिष बधिर अंध का लेखा। एक न सुनहि एक नहि देखा॥
हरइ सिष्य धन सोक न हरई। सो गुरु घोर नरक महुँ परई॥
मातु पिता बालकन्हि बोलावहिँ। उदर भरै सोई धर्म सिखावहिँ॥
दो॰ ब्रह्म ग्यान बिनु नारि नर कहहिँ न दूसरि बात।
कौडी लागि लोभ बस करहि विप्र गुर घात॥
बादहिँ सृद्र द्विजन्ह सन हम तूम्ह ते कछु घाटि।
जानइ ब्रह्म सो विप्रवर आँखि देखावहिँ डाटि।
क्या आप तुलसीदास जी के लिखे एक भी शब्द को झुठला सकते हैँ?
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