एक
प्रसिद्ध संत मृत्यु के बाद जब स्वर्ग के दरवाजे पर पहुंचे तो चित्रगुप्त
उन्हें रोकते हुए बोले, 'रुकिए संत जी, अंदर जाने से पहले लेखा-जोखा देखना
पड़ता है।' चित्रगुप्त की बात संत को अच्छी नहीं लगी। वह बोले, 'आप यह कैसा
व्यवहार कर रहे हैं? बच्चे से लेकर बूढ़े तक सभी मुझे जानते हैं। '
इस पर चित्रगुप्त बोले, 'आपको कितने लोग जानते हैं, इसका लेखा-जोखा हमारी
बही में नहीं होता, इसमें तो केवल कर्मों का लेखा-जोखा होता है।' इसके बाद
वह बही लेकर संत के जीवन का पहला हिस्सा देखने लगे। यह देखकर संत बोले, 'आप
मेरे जीवन का दूसरा भाग देखिए क्योंकि जीवन के पहले हिस्से में तो मैंने
लोगों की सेवा की है, उनके दु:ख दूर किए हैं। जबकि जीवन के दूसरे हिस्से
में मैंने जप-तप और ईश्वर की आराधना की है। दूसरे हिस्से का लेखा-जोखा
देखने पर आपको वहां पुण्य की चर्चा अवश्य मिलेगी।'
संत की बात
मानकर चित्रगुप्त ने उनके जीवन का दूसरा हिस्सा देखा तो वहां उन्हें कुछ भी
नहीं मिला। सब कुछ कोरा था। वह फिर से उनके जीवन के आरंभ से उनका
लेखा-जोखा देखने लगे। आरंभ का लेखा-जोखा देखकर वह बोले, 'संत जी, आपका
सोचना उल्टा है। आपके अच्छे और पुण्य के कार्यों का लेखा-जोखा जीवन के आरंभ
में है।' यह सुनकर संत आश्चर्यचकित होकर बोले, 'यह कैसे संभव है?'
चित्रगुप्त बोले, 'संत जी, जीवन के पहले हिस्से में आपने मनुष्य की सेवा
की, उनके दु:ख-दर्द कम किए। उन्हीं पुण्य के कार्यों के कारण आपको स्वर्ग
में स्थान मिला है, जबकि जप-तप और ईश्वर की आराधना आपने अपनी शांति के लिए
की है। इसलिए वे पुण्य के कार्य नहीं हैं। यदि केवल आपके जीवन के दूसरे
हिस्से पर विचार किया जाए तो आपको स्वर्ग नहीं मिलेगा।' चित्रगुप्त की बात
सुनकर संत समझ गए कि जीवन में जप-तप से बड़ा कर्म है सच्चे मन से मनुष्य की
सेवा।
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